नहीं
हारता,
वरन
स्वयं पर
किसी
प्रिय का
अविश्वास
उसे
पराजित
कर जाता है।
विजयश्री सदैव
दृढ़ता ही नहीं देती
कदाचित स्वयं पर
रखी गयी अगाध
आस्था का बल
दुर्बलतम को भी
उत्साहित कर जाता है।
संघर्ष कब
पराजय स्वीकार
कर किए जाते हैं ?
मस्तिष्क
में उपजे
संदेहों के द्वार पर
कड़ी लगाकर
जताया गया
किसी का विश्वास
व्यक्ति के प्रयास को
स्वीकृत कर जाता है।
शिशिर सोमवंशी
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