यह ज़िंदगी,
जितनी तुम जताते
हो।
मधुर स्वर में
सत्यता का,
छद्म आवरण
पहने
अपनी तुच्छता
की ही तुष्टि करती
तुम्हारे हित की
बात नहीं जो
अवसर मिलते ही
तीव्रता से दोहराते
हो ।
या धुएँ का
यह अर्थहीन छल्ला-
जो तुमने हवा
मे रचा है अभी।
वैसे ही जैसे
कुशलता से रच लेते
हो,
अपने अनुमानों से
दूसरे का चरित्र।
बिना समझे सर्वस्व
समझ जाने का
यह ढोंग मेरे मित्र,
कैसे कर जाते हो?
कई बार
आक्षेप,
उतना द्रवित एवं
विचलित नहीं करते,
जितना यह कि
कहने वाला कौन था।
जब अनुपस्थिति में,
किसी आरोप ने
मुंह खोला तब,
किसका प्रतिवाद हुआ,
कौन सुनकर मौन था।
अंतिम शब्द तक,
कह के, सुन के,
अंतिम सीमा तक
अपने कल्पित
ताने बाने बुन के,
अंतरात्मा को इतना
निर्मल और निर्भय
कैसे रख पाते हो?
ज़िंदगी हमारे अहम,
हमारे सस्तेपन से
मान नहीं जाती।
बस लगता है हमे
ऐसा कई बार।
आज के बाद,
जब मिलो इससे
इतना सोचो कि
तुम ज़िंदा हो इसमे,
ये तुम में नहीं.
मुझसे मिलने
तुम चले आना,
पहले की तरह,
मुझे पता है
बहुत पहले से-
यह मित्रता,
यह जुड़ाव और
अपनापे का भाव
मुझसे है
ये तुमसे नही।
मैं मान जाऊंगा
पुनः वह मोहक
मुस्कान और वही
अतिरिक्त मिठास
वाणी की लेते आना,
जो तुम सहज ही
संग ले आते हो।
शिशिर सोमवंशी
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