Sunday, July 12, 2015

औरत

सारी अपेक्षाएं
उसी से क्यों हों?
अकारण वही क्यों
बोले, सुने और
समझे सबको?
संभाले वही क्यों,
जिस पल टूटे कोई,
बिखरे कोई जब.
विश्वास भरती फिरे,
अपने अंतर्मन की
अनेकों पीडाओं
को दबाए हुए तब.


मौन उसका बुरा,
कथन मन का
उलझनें बढ़ाए
अपनी भी,
दुनिया की भी.
आँख भीगे तो,
बंद करनी पड़ें
कस के पलकें,
रुदन फूटे तो
दबाने हों होंठ
एकदम वैसे.

खिला रहे चेहरा
की खिली खिली
चमकती सी,
सजी-सँवरी हुई
चहकती सी
माँगें उसे सब,
चाहें उसे सब

अपने आप से ही
कहते सुनते,
श्रांत, व्यथित,
और एकाकी उसे
अकसर देखा मैनें.
अपने तन की ही
तरह मन को
छुपाकर, ढक कर
एक औरत का जीना
कितना दुष्कर है
ये सोचा मैनें.

शिशिर सोमवंशी

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