Monday, July 13, 2015

अंधेरे का दर्द

सहने की शक्ति
के चुकते चुकते
अँधेरे पर ही
आसक्ति हुई.
कम से कम
एक रंग तो है
गहरा और पक्का.
उजाले की तरह
रोज़ बदलता
तो नहीं रहता.

मेरा साथ दे दो
इस अशक्ति और
ठहराव के पल,
मेरे अस्तित्व के
बिखराव के पल.
सघन काले बादलों
आकाश पर
उमड़  कर ढांप लो
इस चुभते प्रखर
प्रकाश में
रहा नहीं जाता.
सूर्य के दर्प और
दंभ का प्रदर्शन
सहा नही जाता.
चमक ही सब
कुछ क्यूँ है?
दिखने वाला ही
बिकता क्यूँ है

जो पुष्प हैं
सुगंधित और
लुभावने भी,
सहर्ष अपना
लिए  जाते हैं.
वहीं कुछ काँटे,
नितांत एकाकी,
उन्ही फूलों की
रक्षा करते करते,
सतत तिरस्कार की
पीड़ा को भोगते,
चेहरे पर निर्विकार
भाव लिए,
गुम हो जाते हैं.

दिल डूबता सा
जब लगता है,
और सांस कहती है
बस अब और नहीं.
प्रकाश की
उपेक्षा से
उपजने वाले,
अंधेरे के दर्द का
भान होता है.
तिरस्कृत काँटों के
त्याग और संघर्ष
पर मान होता है.

शिशिर सोमवंशी 

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