काल
के क्रूर
कठोर बंधनों का,
दुस्सह नियंत्रण
में,
स्वास की
गतियां,
सुविधा से बरती
गयी,
दोमुँही छद्म
मर्यादा।
परिचित अपरिचित
बींधती
दृष्टियां।
मेरी स्वयं चुनी
हुई काराएँ,
स्वरूप बदलती,
प्रतिक्षण
परिवर्तनशील,
रोकने को आकांक्षा
के
सूक्ष्म से उद्वेग
को।
बीत गया मधुरिम
सब,
नहीं
बीतता सुखों का
अनवरत वनवास।
उस
पर मुझे
सहज प्राप्य,
मेरे सम्मुख उसके
बारंबार आ जाने
की नियति-
ऐसी जैसे
भावना विहीन,
शीघ्रता से
संप्रेषित,
अधूरे मन से दिया
अपूर्ण
सा आशीर्वाद।
मस्तक पर लिखित-
सर्वदा सशंकित
एवं अर्ध फलित.
भाग्य का
प्रहास।
एक वो है
विश्व
की
निर्झर विष-वर्षा में
भीगते हुए भी
स्वयं में
निर्विकार।
स्पर्श कर ही
लेती है मुझको,
निज बंधनों पर
होकर विजित,
तोड़ती निज कारा को।
मूक नयनों
की
करुंण भाव भंगिमा
से,
देर तक सोच कर
कहे गए किंचित
अपनत्व के शब्दों
में
अनेकों अर्थों
को
समेटे हुए।
मोम का पिघलाता
मुझे
ढाढस का उसका
आत्मीय
प्रयास.
ऋतु, प्रकृति
या काल
कोई विलगाव
कोई भी अंतराल
मध्य नहीं आता इस
अदृश्य स्पर्श के,
जिस में समाहित
लाखों
समागमों का उत्कर्ष
आनंद का चरम
और उसकी संतृप्ति।
प्रातः, दिवस,
रात्रि
बना रहे जिसका
लोभ
पलती रहे जिसकी आस।
एकाकी होने पर
सोचने लगता हूँ
कई बार सहसा
किस लिए मैं
ही
उसे छू नहीं सकता?
इस काया की
कारा में
उलझे रहे
व्यर्थ
क्यों
हम दोनों
सतत जीवन
पर्यन्त
देह से सर्वथा ऊपर
तुम
देह का बंधक मैं
पतित।
मैं हूँ चिर
एकाकी
और साथ है
जीवन संध्या
में
शूल सा चुभता
आभाष।
शिशिर सोमवंशी
No comments:
Post a Comment