Thursday, September 1, 2011

लिफ़ाफ़ा


मैंने कई बार कहा
मैं उजला,साफ़ काग़ज़,
मुझ पर लिखो
कुछ ऐसा जो
कोई देखे, सराहे और
सहेज़ कर रखे.
जैसे सदियों की बचत;
मेहनत की ख़री पाई.

समय ने किस की सुनी,
मैं बन के रह गया
एक ऐसा लिफ़ाफ़ा
जिस पर
जिसका जो मन आया,
वैसी क़ीमत का,
टिकट चिपका दिया;
और ऐसी मंज़िलों का,
पता घसीट दिया;
जो मेरी न थीं.

जहाँ लिफ़ाफ़ा तो
पहुँचता रहा....
मैं नही-
इतने बरसों मे,
इतने सालों मे,
मेरी बारी ही थी;
जो नही आई.

इसको पढ़ना और
भूल जाना तुम,
दिल पर अपने,
न बोझ लाना तुम,
ज़िंदगी बीता करती है
कई बार यूँ ही-
अपने मन का ,
नही होता हरदम.

आज फिर हंस के
निकलने का दिन है
राह मे बिखरें हैं;
वो नही मोती-माणिक
काँच के टुकड़े हैं;
चुभती है तो क्या-
ख़ुद के सपनों की
ये कमाई.

-शिशिर सोमवंशी

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