Monday, September 26, 2011

आओ लौट चलें

वो शांत वृक्ष/
उनके गहरे हरे पत्ते/
पसरी हुई पगडंडी पर/
रह रह के उभर आते/
वो बैंगनी से फूल/
खिल खिलाती नदी/
और उसकी धार में/
गुदगुदाहट से/
हंस हंस के लोटते/
गोल सफेद पत्थर.....
उन्ही पतों पर/
वहीं रहते हैं.
उसी तस्वीर मे/
हर रूप- हर रंग मे/
बसते हैं अभी.




आओ लौट चलें/
कि वो भागे नही/
हमारी तरह/
हम से कहते हैं/
माँ ने बच्चों के घर/
लौट के आ जाने पर/
कुछ कहा है कभी?

-शिशिर सोमवंशी
[देहरादून से दिल्ली की शताब्दी रेल से यात्रा मे २४ सितंबर २०११.]

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