Friday, January 7, 2011

विलाप की उत्कंठा



आज पुन:,

विलाप की,

उत्कंठा है तो,

रो लो जी भर के,

अपने मन का.

किंतु औचित्य क्या,

यदि अंतिम न हो,

इस पीड़ा का,

इस रुदन का.


यह संत्रास,

रिस जाएगा,

इस निशा के,

आंचल मे-

सबसे छुपकर,

माध्यम बस-

सत्य से,

पलायन का.

निज-कल्पित,

निज-चिंतन का,

ना मार्ग है,

ना क्रम है,

जीवन का.

No comments:

Post a Comment