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आज पुन:,
विलाप की,
उत्कंठा है तो,
रो लो जी भर के,
अपने मन का.
किंतु औचित्य क्या,
यदि अंतिम न हो,
इस पीड़ा का,
इस रुदन का.
यह संत्रास,
रिस जाएगा,
इस निशा के,
आंचल मे-
सबसे छुपकर,
माध्यम बस-
सत्य से,
पलायन का.
निज-कल्पित,
निज-चिंतन का,
ना मार्ग है,
ना क्रम है,
जीवन का.
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