मीत मेरे
पुराने फलित
स्नेह सम्बन्धों को
सर माथे बिठाओ ।
पलकों पर
उठा कर उन्हें,
शिखरों की
उत्तुंग ऊंचाई
तक पहुंचाओ ।
तक पहुंचाओ ।
स्वयं सिद्धि की
एकांगी धारा में
रिश्तों के
जीवन रस की
अंतिम बूंदों के
बहने तक।
अहम तुष्टि में
कुछ जाने
कुछ
अनजाने
नामों की
घुटती साँसे शेष
रहने तक।
वहाँ उस
ऊंचाई पर
पहुंचा कर उन्हे
जहां कुछ
बचता नहीं
भुनाने को।
उनका हाथ
छुड़ा लेना और
धकेल देना
अतल खाई में,
विस्मृत कर चले
आना वापस,
कुछ नए संबंध
बनाने को।
जहां प्रतीक्षारत
मुझसे
कई
एक आत्मीय दृष्टि
मधुर स्वर
और कोमल स्पर्श का
बंधन सहर्ष
अपनाने को-
छले जाने को।
शिशिर सोमवंशी
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