Wednesday, December 2, 2015

सरस्वती सा तन

आज सुबह
उठने पर
वर्षों का श्रांत
यह शरीर विद्रोह
कर ही बैठा।
उग्र हो बोला मुझे
बहुत हुआ
बस भी करो अब। 
बंद करो अपनी
आकांक्षाओं का दोष
मेरे मस्तक
पर मढ़ना। 
बंद करो यह
मन की शुद्धता एवं
तन की विवशता
की कल्पित
कथा गढ़ना। 

किसे भागी बनाया
तुमने भोग के
ओछे आह्लाद में ?
कभी मेरे कंधे पर
उचक कर
अपने अहं में ,
कहीं मेरी शक्ति से
अर्जित किए
यश, पद, प्रतिष्ठा
और विलासिता के
तुच्छ प्रमाद में। 

 मैं शरीर मेरा 
कोई मूल्य नहीं
यह असत्य
तुम्हारा धर्मग्रंथ
कहता है ?
अरे वह अवतार भी
अपनी लीला
अपनी मर्यादा को
मुझमे आ कर ही
रहता है।

तुम्हारे हैं मेरे नहीं
मोह और
उनके बंधन।
तुम्हारे हैं संबंध
उनसे तृप्ति
उनके द्वंद
और उनके क्रंदन।
अपने लोभ को
मुझ पर मत लादो,
अब मुक्त करो
मुझको और मत बांधो।

मैं देख सकता हूँ
जो तुम नहीं देखते
मैंने देखा है तुम्हें
पूर्व में भी
कई जन्मों में।
मुझे दिखता है
गल रहा हूँ,
घट रहा हूँ,
किन्तु जर्जर होने से
बहुत पहले ही
मुक्त कर
दूंगा तुम्हें
मैं पुनः अपने
दश द्वार से। 
क्योंकि स्वार्थी
नहीं तुम सा
देखना उस दिन
जब दबे होगे
मेरे उस अंतिम
उपकार से। 

 तुम नहीं होगे 
तुम्हारे प्रलाप नहीं। 
तुम्हारे असंतोष
तुम्हारी अतृप्ति का
यह जलता हुआ
ताप नहीं।
शीतल हो रहूँगा
शांत स्थिर
भूमि पर
जो तुमसे संभव
नहीं होता
प्रात: प्रथम रश्मि से
निशा के अँधियारे तक।
आह हिम सा
ठंडा मैं
बंधा हुआ 
बांस की शैय्या पर
फिरूँगा  उन्ही
नगर के  मार्गों पर
परिचित अपरिचित
काँधों पर अंतिम बार
अंतिम यात्रा में
गंगा के किनारे तक।

सूखी लकड़ियाँ 
लेशमात्र घी से
बदल जाएंगी
लपलपाती  गर्म
लाल लपटों में
मेरी पूर्णाहुति
अपनाने को।
हर अंग से
तुम्हारे सुख और
पीड़ा के
अवशेष छान कर
अलग करती हुई
गंगा की धारा
व्याकुल मुझे
पाने को।
हिम से मैं राख़
हो जाऊंगा ।
त्रिवेणी मे समाकर
पवित्र अदृश्य
सरस्वती सा
खो जाऊंगा।

शिशिर सोमवंशी

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