मैने उजाले से सीखा/
फैल जाना/ परिवेश पर/
निसंकोच/
थोड़ा थोड़ा ही सही.
तुमने अपनायी/
अंधेरों की झिझक/
और समेटते गये/
स्वयं को/ अपने भीतर/
कमी किसी की नहीं.
दृष्टि से/ क्यूँ समझौते/
प्रकृति से/ क्यों संघर्ष/
आज जैसा है/
वो चाहा नहीं/
और यदि है तो/
चलो ऐसा ही सही.
कहीं रहो/ कैसे भी रहो/
मिलूँगा तुमसे/
तुम्हारे बंद कमरे की/
खिड़कियों की/ दरारों से-
मेरा कहना है यही.
-शिशिर सोमवंशी
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