Monday, November 15, 2010

हायवे की धूल


मैं हायवे की धूल,
की तरह फैल कर,
तुमसे लिपट जाने को हूँ;
ये जानकार भी कि-
मुझको देखकर तुम,
अपनी गाड़ी के,
शीशे चढ़ा लोगे.
मुझसे पीछा छुड़ा,
गुजर जाओगे तेज़ी से.
अपने गंतव्य को,
मन मे बसाए हुए.

मैं तो ऐसे ही,
दूर तक आऊँगी,
तुम्हारे पीछे.
और फिर थक के-
बिखर जाऊंगी-
तुम्हारे दोबारा इस राह,
चले आने की आशाओं,
को सजाए हुए.

-शिशिर सोमवंशी (२७ एप्रिल १९९८; किसी उधेड़ बुन में)

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