Wednesday, November 3, 2010

शाम की सोच


दिन रुका नहीं/
दौड़ता निकल गया/
हाथ मे/ थोड़ा रहा/
ढेर सा/ फिसल गया/

और उतरती शाम को/
साथी बनाकर/
चल दिया मैं/ सोच कर ये/
जो हुआ/ अच्छा हुआ

-शिशिर सोमवंशी
१४ फरवरी २००० (क्यूँ लिखी याद नही)

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