![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikjAKbR7_jHWNuQSsJTT1N2z1hDyC2_EA-oGYII12uvf7vjgJ7UB137ZC_IIo66ts5Um9BPKsvQxS3v-42RgqfSzujr0QDO3xQRD__BRbP113T_0hxSeYVR5Bkpy6mK6dMVy_9KuWwqgM/s320/Blackout-Curtains.gif)
बंद कमरे मे भी,
पता चल रहा है-
कि शाम उतर रही है,
बाहर खिड़की के,
पर्दों के पीछे,
धीरे धीरे.
सुबह से ही था,
थक गया मन-
तन चलता रहा,
घड़ी के साथ,
धीरे धीरे.
बहुत हुआ जितना सहा,
मैं भी उठकर,
हटा ही दूँगा-
इन पर्दों को,
काँपते हाथों से,
धीरे धीरे.
बाहर जो बिखर रही है,
उस ख़ुश्बू की ख़ातिर,
या पल पल ठंडी होती,
हवाओं के लिए?
बात ऐसी भी नही.
बहुत देर उजाले को,
रोक कर रखा,
अब अंधेरो को,
रोक लूँ-
कहाँ धीरज बचा-
कहाँ सामर्थ्य रही.
-शिशिर सोमवंशी