Saturday, August 9, 2014

मैं आराध्य नहीं

प्रिये मैं आराध्य नहीं 
अपनी समस्त दुर्बलताओं में 
सिरे से अंत तक उलझा हुआ- 
उन्हे समझता और स्वीकारता 
मनुज हूँ 

मन हूँ.

तुम भी तो समझो
कच्ची-पक्की मिट्टी की
मूर्ति हूँ-
जो जस तस बन गयी
उस आँच मे
जो भी जीवन की गति में
मेरे हिस्से पड़ी.
अपेक्षाओं की कसौटी
कसते कसते टूटा तो?
भन्गुर हूँ
अकिंचन हूँ.

ये कैसा प्रेम है?
जो सतत बदलाव की
प्रत्याशा मे जीवन के
पूर्व से ही रीते पात्र
को ही उलट देना चाहे?
कैसा प्रेम है?
जो हर घटना
हर गतिविधि पर
पहरे बिठाए और सहम जाए.

प्रियपात्र का
वर्जनाओं से सर्वथा मुक्त होना
दुष्कर है
और दुरूह है हर आशा का
अपेक्षित परिणाम.
संबंधो में-
हम सब सहते हैं,
बँधते हैं,
सुलगते हैं
और शांत भी होते हैं
मर्यादा कमजोर क्षणों मे
इनसे विलग होने के
प्रयास की है.

हाँ मेरे अपराध
दो पृष्ठ अधिक,
हाँ मेरा भटकाव,
कुछ मोड़ आगे तक.
मेरी.................छोड़ो-

मेरी मान्यताएँ, मेरे मूल्य
कहीं निजता और
कहीं सहजता.
मेरा व्यतीत और मेरा अतीत
मेरी श्रद्धा, समर्पण
और मौन समर्थन....
कितने सर्प लिपटे रहे
और कभी लगा ही नही
मैं चंदन हूँ.

दिल इतने बड़े क्यूँ हों?
कि उनमें ज्वार उठते रहें
साँसें उफन जाएँ
क्यूँ अनायास यूँ ही
और ज़रा सी बात पे
घुटती रहें कई रातों तक?
प्रेम? नही हूँ बस
साहचर्य के सुखों का उल्लास
दुखों का विषाद
नितांत सरल स्थितियों की
अप्रत्याशित परिनिति का
अनसुना स्पंदन हूँ.
क्या कम हूँ? 

-शिशिर सोमवंशी२३-०४-२०१४ सुबह के नौ बज गये इस प्रलाप में.


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