Sunday, August 10, 2014

अभी और जीने का मन है

मरुथल से शुष्क यथार्थ और 
प्लावित व्यावहारिकता 
के मध्य दम घोंटते 
नीरव एकाकीपन से....
थकी साँसों को जागृत और
जीवन से स्वत: किए 

पुराने अनुबंध को स्मृत कर-
मैं लौट आया हूँ
अपनी अकिंचन दुनिया मे-
सबके लिए- अपने लिए...
कि अभी और जीने का मन है।

अपेक्षा- अनापेक्षा,
प्रतिस्पर्धा और पश्चाताप
की धूल कस के फटक
अनुराग- विराग,
हर्ष और प्रलाप
को परे झटक
विगत की गणित को विस्मृत कर-
मैं लौट आया हूँ
अपनी अकिंचन दुनिया मे-
सबके लिए- अपने लिए....
कि अभी और जीने का मन है।


-शिशिर सोमवंशी (१ जनवरी २०१४)

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