Sunday, August 10, 2014

मेरे मन मे आज

सौ रूप लेना चाहता हूँ,
सौ रंग भरना चाहता हूँ,
एक बार के इस आचमन से-
तृप्त मैं ना हो सकूँगा.
जीवन अमय की निधि अतुल को,
भर भर के पीना चाहता हूँ.

हर प्रश्न को कर के किनारे,
अपनी निराशा को विजित कर,
अपने ही हाथों के सहारे-
कुछ पाप धोना चाहता हूँ,
कुछ पाप ढोना चाहता हूँ.
इस पाप-पुण्य से परे-
मैं आज होना चाहता हूँ.

शत्रु सा चाहे छले, चाहे चुभे.
या मित्र बन उर से लगे-
हर सत्य जीना चाहता हूँ.
जीवन अमिय की निधि अतुल को,
भर भर के पीना चाहता हूँ.

-शिशिर सोमवंशी

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