![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh9jAiCaBa28YJ-_l4S-stpJqMIEMRFn8E-jgNtjINFOsPucg_G8vpq1h48LN4zLTpxVzXk63A45toBpNgb9nJgGwPwaMhhMbPNGtu2Zf1S-cJbLLXq4dTi0BC24i_OaMLKxYpqIPWIjSA/s320/P1010046.JPG)
वो भी तुम्ही हो/
ग्रीष्म की/
तप्त दोपहर/
जो बीतते बीतते/
देर तक ठहरी/
बिना आमंत्रण अनायास/
चुपके से चली आई/
और शीतल कर गयी/
वो सांझ-
तुम्ही हो.
चमक कर/
फैली हुई/ये धूप/
तुम्ही हो/
झिझक कर/
सिमट गयी/
थी जो रात.
तुम्ही हो/
हर रंग/
हर घटना/हर मौसम;
मेरा बसंत भी/
शिशिर भी/
मेरी भटकन/
मेरी मुक्ति;
अतीत, व्यतीत/
और वर्तमान/
मुझमे घुला/
सब रस/
मुझसे बँधी/ हर बात.
तुम्ही सब कुछ हो-
मैं तो बस/
वो समय हूँ;
जो तुम्हे छू कर
यूँ ही निकल गया;
क्यूँ कहते हो कि-
मैं बदल गया.
शिशिर सोमवंशी
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कई बार खोने मे,
प्राप्ति सा सुख होता है.
बहुत बार पा कर भी,
तृप्ति का आनंद नही.
वचन जब शब्द हों-
वार्ता औपचारिकता.
मिलना एक रस्म सा,
बिछड़ना भाव-विहीन.
आँखें देख लेती हैं-
जाने क्या क्या.
दिल से नही कहतीं-
कि दुखी होगा नासमझ.
संजोता है संबंध
परखता नहीं.
मैं लौट आया हूँ;
नीरव एकांत के दिनों से,
छला जा कर,
चुपचाप उसी मेले मे,
गुम हो जाने को.
जिसमे अपनी भी
झलक मिलती नहीं.
मैं सुखी हूँ-
कि मैं यहाँ हूँ-
इस सब के बीच,
जीवन के छोटे छोटे
सुखों मे सिमट के-
और व्यर्थ के दुखों को,
पोस कर, सहेज कर.
खुश हूँ कि ज़िंदा हूँ-
ऐसी ज़िंदगी तो
सब को मिलती नही.
-शिशिर सोमवंशी