एकाकी नग्न
पठार पर
उगा अकेला
वृक्ष हूँ
समस्त अभावों
और सतत
विपरीतता में
पनप उठा
दिवास्वप्न-
जिसे यथार्थ ने
सहयोग करना
अस्वीकृत किया.
किंतु जिसने
जीवन के प्रति
अपनी आस्था को
जीवित बचाए रखा.
वैसे ही जैसा
एकाकी पठार
के लिए
एक एकाकी
वृक्ष ने किया-
किसी को कभी
अकेला मत
रहने दो.
दो शब्द कभी
उस अपरिचित
से भी
कह दो
बिना वजह,
बिना अधिक
सोचे विचारे,
जो अकेला
पड़ता दिखे
संबंधों के
अरण्य मे.
निशब्द सूख
ना जाए -
सरस्वती
मानवीय
संवेदना की
धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष की
दुविधाओं मे,
निर्बाध इसे
बहने दो...
-शिशिर सोमवंशी
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