Sunday, February 8, 2015

दुख मेरे

कितनी प्रचंड,
कितनी प्रखर हो,
काल की धूप
सुखाती उन्हे है,
पास जिनके
नहीं होते अश्रु-
उनकी चिरस्थाई
आद्रता की
सजल
उपस्थिति.
और मैं हूँ
रोम रोम
भीगा हुआ,
आद्योपांत
द्रवित.

इस जीवन की,
सतत पीड़ा,
के मध्य भी,
कुछ दुख हैं,
नितांत अपने.
जिनसे छली,
नही गयी,
मेरी प्रकृति.
ऐसे दुख,
अंततः सुखद,
जिनकी
परिणति.
और बाँधे रही
थामे रही
संबल बनकर
जिनकी 
उपस्थिति.

मैं कैसे
हो जाऊँ?
निर्मोही,
स्वार्थ-मय
संकुचित.  
त्याग कर
सानिध्य इनका-
बिसार दूँ
इनकी
संगति?
मुझ पर
मेरी आत्मा
पर भी है
मित्रता का
वचन यह  
अघोषित.

-शिशिर सोमवंशी

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