जिस दिन
इन्हीं हाथों से,
फिसली थी
आशा की
अंतिम किरण.
और शैशव
के धृष्ट
उत्साह ने,
किनारा किया.
ठीक से
याद नहीं,
आज जैसा ही
लगता था-
थोड़ा तन्हा
उदास
बेमतलब.
अपरिचित
उल्लसित स्वर,
संगीत की
ध्वनियाँ,
गूँज कर
बुझ गयीं,
मेरे आस-पास
बेमतलब.
जैसे बेजान
ज़िस्म मे,
चलती थी
सांस बेमतलब.
नींद खुलने
पर घबरा जाऊं
पास उसको
नहीं पाकर
वो जो उतरा था
चुपके से-
मेरे चेहरे पे
मेरी आँखों मे.
देर तक उनमे
रोशनी ढूँढे,
ये अंधेरा सा
ख्वाब बेमतलब.
रोज़ ऐसे ही
बीत जाया करे,
ज़िंदगी जैसी
ये
रात बेमतलब.
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